Lekhika Ranchi

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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःबिखरे मोती



मंझली रानी सुभद्रा कुमारी चौहान

(१)
वे मैने कौन थे ? मैं क्या बताऊँ ? वैसे देखा जाय तो वे मेरे कोई भी न होते थे। होते भी तो कैसे ? मैं ब्राह्मण, वे क्षत्रिय; मैं स्त्री, वे पुरुष; फिर न तो रिश्तेदार हो सकते थे और न मित्र आह ! यह क्या कह डाला मैंने ! मित्र ? भला किसी स्त्री का कोई पुरुष भी मित्र हो सकता है ? और यदि हो भी तो क्या इसे समाज बर्दाश्त करेगा ? यहाँ तो किसी पुरुष का किसी स्त्री से मिलना-जुलना या किसी प्रकार का व्यवहार रखना भी पाप है। और यदि कोई स्त्री किसी पुरुष से किसी प्रकार का व्यवहार रखती है, प्रेम से बातचीत करती है। तो वह स्त्री भ्रष्टा है, चरित्र-हीना है, नहीं तो पर पुरुष से मिलने-जुलने का और मतलब ही क्या हो सकता है ? खैर, न तो मुझे समाज से कुछ लेना-देना है, न समाज से कुछ सरोकार । समाज ने तो मुझे दूध की मक्खी की तरह निकाल कर दूर फेंक दिया है। फिर मैं ही क्यों समाज की परवाह करूं ?

मेरे माता-पिता साधारण स्थिति के आदमी थे । परिवार में माता पिता के अतिरिक्त मुझसे बड़े मेरे तीन भाई और थे। मैं सब से छोटी थी । छोटी होने के कारण घर में मेरा लालन-पालन बड़े लाड़ प्यार में हुआ था । मेरे दो भाई बनारस हिन्दू-युनीवर्सिटी में पढ़ते थे और दोनों से छोटा राजन मैट्रिक में पढ़ रहा था। मेरे पिता जी संस्कृत के पूरे पंडित थे और पुरानी रूढ़ियों के कट्टर पक्षपाती । यहां तक कि वे मेरा विहाह नौ साल की ही उमर में करके गौरीदान के अक्षय पुण्य के भागी बनना चाहते थे। कई लोगों के और विशेषकर मेरे भाइयों के विरोध के कारण, ही वे ऐसा न कर सके थे। जब मैं पाँचवीं अँगरेज़ी में पढ़ रही थी और मेरी आयु चौदह साल के लगभग थी, तब सेरे माता-पिता को मेरे विवाह की चिन्ता हुई। वे योग्य वर की खोज में थे ही कि संयोग से ललितपुर के तालुकेदार राजा राममोहन हमारे क़स्बे में शिकार खेलने के लिए आए। क़स्बे से लगा हुआ ही एक बड़ा जंगल था, जहाँ शिकार खेलने का अच्छा मौक़ा था। उनका खेमा जंगल से बाहर क़स्बे के पास ही था । क़स्बेवालों के लिए यह एक खास तमाशा-भी हो गया था। उनके टेन्ट में कभी ग्रामोफोन बजता और कभी नाच-गाना होता है लोग बिना पैसे के तमाशा देखने को झुन्ड-के-झुन्ड जमा हो जाते । एक दिन मैं भी राजन और पिता जी के साथ राजा साहब के डेरे पर गई। मेरे पिता जी की राजा साहब से जान पहिचान हो हो गई थी। हम लोग उन्हीं के पास जाकर कुर्सियों पर बैठ गए। राजा साहब ने हमारा बड़ा सम्मान किया। लौटते समय उन्होंने हम लोगों को अपनी ही सवारी पर भेजा और साथ में बहुत से फल, मेवा और मिठाई इत्यादि भी रखवा दी ! क़स्बे की कई लड़कियाँ और लड़कों ने मुझे राजा साहब की सवारी पर लौटते हुए उत्सुक नेत्रों से देखा । किन्तु उस सवारी पर बैठ कर मैं अनुभव कर रही थी कि जैसे मैं भी कहीं की रानी हूँ । और मैंने उनकी ओर आँख उठाकर भी न देखा ।

दूसरे दिन राजा साहब ने स्वयं पिता जी को बुलवा भेजा और उनसे मिलकर दो-तीन घंटे बाद जब पिता जी लौटे, तो इतने प्रसन्न थे कि उनके पैर धरती पर पड़ते ही न थे। ऐसा मालूम होता था कि वे सारे संसार को जीतकर आ रहे हैं । आते ही उन्होंने मेरी पीठ ठोंकी और मां से बोले, लो, इससे अच्छा और क्या हो सकता था ? तारा का विवाह राजा साहब के मंझले लड़के से तै हो गया । माता-पिता दोनों ही इस सम्बन्ध से बड़े प्रसन्न हुए ।

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